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Showing posts from 2008

पर्यावरण

पर्यावरण की रक्षा करना प्रत्येक मानव का नैतिक कर्तव्य है । आज प्रकृति के लगातार दोहन के परिणामस्वरूप प्रकृति क्रुद्ध हो गयी है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज पूरे भारत में बाढ़ से हो रही तबाही है चाहे वो गुजरात का कच्छ हो अथवा बिहार हो । आज भारत का हर कोना बाढ़ से प्रभावित है । अत्यधिक शोषण व दोहन का भला इससे भयावह परिणाम और क्या होगा ? पर्यावरण के प्रति जो चैतन्यता हमारे पूर्वजों ने सृजित की थी वो आज अस्तित्व में नहीं रही है । प्राचीन भारतीय दृष्टि जो प्रकृति को श्रद्धा से देखती थी तथा प्रकृति के उपादानों की पूजा-अर्चना करती थी आज बदल गयी है । आज हमारे पास वे त्यौहार तो हैं जो हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के सरंक्षण को ध्यान में रखकर प्रारम्भ किये थे पर उनकी जो दृष्टि थी उसका हमारे मध्य नितान्त अभाव है । यही कारण है कि आज पर्यावरण के प्रति ही नही वरन् मानव के प्रति भी हमारी संवेदनशीलता कम होती जा रही है । शहरी इलाको में रहने वाले लोगों से तो सामाजिकता भी अपने सच्चे अर्थों में दूर होती जा रही है उअसके नाम पर अब चोंचला ही शेष रह गया है जो किटी पार्टियों आदि के माध्यम से अपना कृत्रिम कलेवर लेकर

सेकेण्ड हैण्ड वस्तुएँ

आज भारतीय बाज़ार विश्व के विकसित देशों का कूड़ाघर हो गया है । जो वस्तुएं अन्य देशों में उपयोग से बाहर हो जाती हैं उन्हें निर्माता कम्पनियाँ भारत में खपा देतीं हैं । जनता तो सस्ता माल देखकर खरीदनें को आतुर हो जाती है, चाहे क्यों न वह वस्तु चार दिन की चाँदनी बाकी अँधेरी रात ही हो । भात सरकार ने सेकेण्ड हैण्ड वस्तुओं के क्रय-विक्रय हेतु कोई नियम नहीं बनाया है जिससे यहाँ के उपभोक्ता कै बार ठगी का शिकार होते हैं । अपने नागरिकों के हितों का ध्यान रखना सरकार का प्रथम कर्तव्य है परन्तु भारतीय सरकार इस विषय में पूर्णतः उदासीन है । जनता प्रत्येक विषय में स्वतः जागरूक नही हो सकती बल्कि उसे जागरूक करता है तद्विषयक विद्वान् वर्ग । सरकार को चाहिये कि वो इस विषय के विशेषज्ञ को इस कार्य के लिये नियुक्त करे तथा क्रय-विक्रय के कुछ कारगर नियम बनाए। आज भारत को विदेशी कम्पनियाँ अपना माल खपाने का श्रेष्ठ और सस्ता स्थान समझती हैं । भारत सरकार को उनका यह दृष्टिकोण बदलने के लिये कड़ा कानून बनाना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं है जब भारत विदेशों का कूड़ाघर बन जायेगा । इस प्रवृत्ति का सबसे भयंकर परिणाम जो हमारे सामने आ

आतंकवाद

आज के ही दिन अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमला हुआ था ११ सितम्बर २००१ को । उस हमले नें न केवल अमेरिका को वरन् सम्पूर्ण विश्व को दहला दिया था । इस हमले के बाद अमेरिका ने आतंकवादियों के विरुद्ध बिगुल बजाया । कुछ हद तक वह अपने मकसद में कामयाब भी हुआ है । उस समय सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद की समस्या को लेकर चिन्तित हुआ था । भारत भी उस समय नींद से कुछ जागा था तथा इसने भी उस हमले पर कुछ टिप्पणियाँ की थीं । पर उसके कुछ दिन बीतते ही जैसी ही वह बात पुरानी हुई भारत की इस समस्या के प्रति चैतन्यता जाती रही । २००१ के बाद से भारत में अनेक आतंकवादी गतविधियाँ दिन-प्रतिदिन तेज़ रफ़्तार के साथ घटित हो रहीं हैं । हर आतंकवादी गतिविधियों में मारे जाने वाले लोगों के परिजनों को सरकार कुछ धनराशि प्रसाद के रूप में बाँटकर मामले को सीबीआई जाँच के लिये दान देकर आराम फ़रमाती रहती है तब तक जब तक आतंकवादी किसी दूसरी घटना को अंजाम नही देते । और जब दूसरी आतंकवादी घटना घटती है तब फिर वही अपना पञ्चम राग अलापने लगते हैं । उसके कुछ दिन बाद जैसे ही उस मामले पर धूल जमती है उनका रग खराब होंने लगता है और वे धीरे-धीरे अपने मुलायम

हमारे नौनिहाल और नशा

आज परिवेश इतना विषाक्त हो चुका है कि हमारे नौनिहाल भी नशीले पदार्थों के आदी होते जा रहे हैं । कही न कही इसमें माता-पिता की व्यक्तिगत व्यस्तता तथा आस-पास का वातावरण प्रमुख कारण है । आज देश में नशीले पदार्थॊ का सेवन करने वालों में बच्चों किशोरों की संख्या बहुत अधिक है । चोटे-चोटे गाँवों में स्थान-स्थान पर चाहे दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ न मिलें पर गुटका, तम्बाकू, सिगरेट की दूकानें सहज सुलभ हैं। जब हम रेलगाड़ी से सफ़र करते हैं तो हमें १२-१४ वर्ष के लड़के-लड़कियाँ व वृद्ध-युवा महिलायें गुटखा के पाउचों की मालाये लिये बेचते मिल जाते हैं। कै अभिवावक तो वर्षों तक जान ही नही पाते हैं कि उनका बच्चा नशा करता है । बालक व किशोर अपनी मित्र मण्डली के साथ घर-परिवार के सदस्यों से छिपकर नशा करनें लगते हैं किसी को भनक तक नही होती। परिवार वालों को तब पता चलता है जब वे नशे के कारण किसी बीमारी के ग्रास हो जाते हैं और चिकित्सक के पास ले जाये जाते हैं । आज स्थिति की गम्भीरता का अनुमान मात्र इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्राथमिक पाठशालाओं में पढने वाले बच्चे चुराकर या अपने ज़ेब खर्च से नशीले पदार्थ लेते सहज देखे

अधिकार और कर्तव्य

अधिकार और कर्तव्य जीवन के दो पहलू हैं। हम अधिकार की बात करते समय अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं। मात्र अधिकार चाहना अनुचित है। कर्तव्य द्वारा अधिकार अर्जित किया जाता है । अधिकार कोई बलपूर्वक लेने की चीज़ नही है। इसे हम किसी से छीन नही सकते। अपने यथार्थ रूप में अधिकार एकमात्र वही है जो हमारे कर्म के फलस्वरूप स्वतः प्राप्त होता है। जिससे जुड़ी होती है लोगो क्र्र् श्रद्धा और विश्वास। वही सचमुच अधिकार है। बलपूर्वक जमाया गया अधिकार कभी अधिकार नही हो सकता क्योंकि इसमें अधिकृत व्यक्ति पीठ पीछे निन्दा करने को बाध्य हो जाते हैं।

लोकसंस्कृति में पर्यावरण संरक्षण-४ (विजयदशमी)

विजयदशमी पर्व आश्विन शुक्ल दशमी को मनाया जाता है। इसे दशहरा भी कहते हैं । मूलतः यह क्षत्रियों का पर्व माना जाता है परन्तु इसे समाज का प्रत्येक वर्ग मानाता है । इसके सप्ताह भर पूर्व से ही स्थान-स्थान पर रामलीला प्रारम्भ हो जाती है और इस दिन रावण का पुतला फूँका जाता है अर्थात् रावण वध होता है ।यह पर्व अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है । ऎसी मान्यता है कि इसी दिन भगवान् श्रीराम ने लंका के राजा महर्षि पुलत्स्य कुलोद्भव रावण का वध कर उस पर विजय प्राप्त कर सीता को मुक्त करवाया था । तभी से प्रतिवर्ष यह पर्व अन्याय और अत्याचार के शमन के रूप में मनाया जाता है तथा प्रतीक रूप में रावण का पुतला फूँका जाता है। आज भी जनता इसे पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाती है । इस दिन क्षत्रिय जन अपनें अस्त्र-शस्त्रों की सफाई करते हैं । प्राचीनकाल में वस्तुतः वर्षा रुतु के बाद ही किसी राज्य के विरुद्ध रणभेरी बजायी जाती थी क्योंकि वर्षा से अवरुद्ध मार्ग यातायात के लिये खुल जाते थे अथः राजा लोग अपने राज्य की सुरक्षा और दूसरे राजय पर विजय हेतु आक्रमण की तैयारी में विजयदशमी से ही लग जाते थे । अतः इस दिन वर्षा ऋति में जं

लोकसंस्कृति में पर्यावरण संरक्षण-३

कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को दीपवर्तिका का पर्व दीपावली मनाया जाता है । अंग्रेज़ी कैलेण्डर के अनुसार यह पर्व अक्टूबर या नवम्बर महीने में पड़ता है । रामायण काल से ही यह पर्व मनाया जाता रहा है । दीपावली का अर्थ है दीपों की अवलि अर्थात् दीपों की पङ्क्ति । इस पर्व के विषय में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं उनमें से एक कथा भगवान् श्रीराम से जुड़ी हुई है । कहते हैं कि इसी दिन श्रीरामचन्द्र जी चौदह वर्ष का वनवास व्यतीत कर और लंका के राजा रावण पर विजय प्राप्त कर अयोध्या वापस आये थे। इस अवसर पर स्म्पूर्ण अयोध्यावासी प्रसन्नचित्त थे। उनका हृदय प्रमुदित हो रहा था । इस दिन उन्होंने दीपमालिका से पूरी अयोध्या नगरी को दुल्हन सा सजाया था । श्रीराम के स्वागत मे सम्पूर्ण अयोध्यावासियों ने घृत का दीपक जलाया था । तभी से यह दिन प्रतिवर्ष दीपावली के रूप में मानाया जाने लगा । यह पर्व “तमसो मा ज्योतिर्गमय” का पर्व भी है अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का पर्व । इस दिन घनघोर काली रात दीपों से जगमगा उठती है । इसे दीवाली भी कहते हैं । इस पर्व के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण से जुडी एक कथा भी प्रचलित है । कह

लोकसंस्कृति में पर्यावरण संरक्षण-२(रक्षाबन्धन)

रक्षाबन्धन भी एक सौहार्द्र का पर्व है । श्रावण पूर्णिमा के दिन इसे मनाया जाता है । इसकी मान्यता रक्षा पर्व के रूप में है । एक कथा स्वतंत्रता संग्राम से संबन्धित है कि रानी कर्मवती ने हुमायूँ को रक्षा-सूत्र भेजा था । उस समय यातायात के साधन अल्पविकसित अवस्था में थे अतः दूत जब तक रानी कर्मवती का संदेश लेकर हुमायूँ के पास तक पहुँचा और हुमायूँ कर्मवती की रक्षा के लिये सेना लेकर आये तब तक कर्मवती को वीरगति प्राप्त हो चुकी थी । रक्षाबन्धन के विषय में यह अप्रतिम उदाहरण् अहै जब एक मुस्लिम शासक रक्षा करने आया । प्राचीन काल में इस पर्व का स्वरूप ऎसा नही था जैसा अब यह पर्व संकुचित होकर मात्र भाई-बहनों तक सीमित हो गया है जबकि प्राचीन कालमें यह सस्म्पूर्ण समाज के लिये होता था । इस पर्व पर लोग एक-दूसरे की रक्शा का व्रत लेते थे तथा परस्पर कोई विपत्ति आने पर रक्षा का वचन भी देते थे । यह पर्व समाज को एक सूत्र में पिरोता था । श्रावण मास की हरियाली के बीच यह पर्व एक नूतन उत्साह का सृजन करता था तथा लोग निर्भीक होकर अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते थे । किसी समाज व व्यक्ति के आत्मिक , सामाजिक व सांस्कृतिक विक

लोकसंस्कृति में पर्यावरण संरक्षण-१ (होली)

भारतीय मनीषा में ही नही अपितु यहाँ के जन-जन के मानस में प्रकृति के कण-कण के प्रति भ्रातृभाव की भावना शताब्दियों से रची-बसी है । प्रकृति-संरक्षण का दर्शन हमें हमारे रीति-रिवाज़ो, परम्पराओं ,लोकगीतों में सर्वत्र होता है । वेद, वेदाङ्ग, ब्राह्मण, आरण्यक,उपनिषद्, दर्शन, पुराण, आदि तो प्रकृति पूजा के आकर ग्रन्थ हैं। आज भी भारत की ग्रामीण जनता सायंकाल के बाद किसी पेड की पत्ती नहीं तोडती । सायंकाल के बाद पत्ती तोडना वह पाप समझती है । मातायें अपनें बच्चों को बताती हैं कि पेड सो रहे हैं पाप पडेगा यदि तुम उनके सोने में बाधा डालोगे। भारतीय वार्षिक कार्यव्यवस्था प्रकृति को ध्यान में रखकर बनायी गयी है । इसीलिये मधुमास वसन्त से प्रारम्भ होती है हमारी ऋतुव्यवस्था, जो भारत के भौगोलिक स्थिति के लिये आज भी सर्वोपयुक्त है । चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हमारा नव वर्ष विक्रम संवत् प्रारम्भ होता है । यह काल शीतऋतु और ग्रीष्म ऋतु का सन्धिकाल काल होता है प्रकृति अपने नव-नव कोपलों से नववधू सी सजी होती है। खेत हरियाली से भरे रहते है लगता है कि मात्र मानव ही नही वरन् सम्पूर्ण प्रकृति नववर्ष का उत्सव मना रही है । हमारे

सङ्गति

सङ्गति का मानव जीवन ही नही अपितु प्राणिमात्र के जीवन में बहुत महत्त्व है । शुक भी यदि वेदपाठी के साथ रहे तो वह वेद पाठ करने लगता है । ऎसे हमारे यहाँ अनेक उदाहरण हैं। सन्त कबीरदास का दोहा है:- सङ्गति ही गुण होत है सङ्गति ही गुण जाय। बाँस, फाँस औ मीसरी एकहि साथ बिकाया ॥ अर्थात् सङ्गति का बहुत प्रभाव पडता है। सङ्गति के कारण ही मिसरी के साथ बाँस का भी भाव बढ गया जिसकी वस्तविक कीनत पाई भर भी नही थी । एक कलाकार की संगति से इक रास्ते में ठोकर मारने के कारण अनेक बार पथिकों क कोपभाजन बनने वाला बेडौल प्रस्तर भी सुन्दर मूर्ति का रूप धारण कर लेता है और कलाप्रश्ंशकों के प्रसंशा का पात्र बनता है । इसलिये संगति पर ध्यान देना अति आवश्यक है क्योंकि कहा गया है:- काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय । एक लीकि काजल की लागि पै है लागि है ।। अर्थात् काजल से भरे कक्ष में कितना भी बचकर जाओ काजल कहीं न कहीं लग अवश्य जायेगा , क्योंकि उसका ऎसा स्वभाव है ।अब्दुर्रहीम खानखाना की यह उक्ति मात्र महापुरुषों पर खरी उतरती है कि:- जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापत नही लिपटे रहत भुजंग ॥ प्रत्येक व्

वर्तमान युवा पीढी

वर्तमान युवा पीढी तथाकथित आधुनिकता के दौर मे दिग्भ्रमित हो गयी है उसे इसमें अपना सुनहरा भविष्य दिखाई पड रहा है । वह इसकी कटु वास्तविकता से पूर्णतः अनजान है । वस्तुतः उसको आधुनिकता का सही अर्थ ही नही पता है । आधुनिकता फौनशनेबुल कपडे पहन लेनाे मात्र नही है बल्कि आधुनिकता आचरण की सभ्यता में निहित है। आचरण की शुचिता किसी भी समाज के आधुनिक होने का आधार है। अन्धानुकरण के इस दौर मे हम यही आगाह कर सकते हैं कि - जो प्रतिष्ठा शेष है उसको रखो। सुधा के धोखे हलाहल मत चखो॥

Swami Vivekananda

Biography of Swami Vivekananda Birth and Early life Narendranath Dutta was born in Shimla Pally, Kolkata, West Bengal, India on 12 January 1863 as the son of Viswanath Dutta and Bhuvaneswari Devi. Even as he was young, he showed a precocious mind and keen memory. He practiced meditation from a very early age. While at school, he was good at studies, as well as games of various kinds. He organized an amateur theatrical company and a gymnasium and took lessons in fencing, wrestling, rowing and other sports. He also studied instrumental and vocal music. He was a leader among his group of friends. Even when he was young, he questioned the validity of superstitious customs and discrimination based on caste and religion. In 1879, Narendra entered the Presidency College, Calcutta for higher studies. After one year, he joined the Scottish Church College, Calcutta and studied philosophy. During the course, he studied western logic, western philosophy and history of European nations. There star
क्या पृथ्वी का वज़न मापा जा सकता है! पृथ्वी का वज़न जानने के बजाय यह पूछना बेहतर होगा कि पृथ्वी का द्रव्यमान क्या है क्योंकि वज़न गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से तय होता है. उदाहरण के लिए एक गेंद का वज़न पृथ्वी पर जितना है वह चंद्रमा पर केवल उसका छठा हिस्सा होगा लेकिन द्रव्यमान वही रहता है. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पृथ्वी का द्रव्यमान लगभग 60 करोड़ खरब टन है. यानी 6 के बाद आपको 21 शून्य लगाने पड़ेंगे. वज़न का अनुमान इस आधार पर लगाया जाता है कि पृथ्वी के आस-पास के पदार्थों के लिए उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति कितनी है. जाने माने भौतिक शास्त्री और गणितज्ञ न्यूटन ने इसके लिए समीकरण दिया है लेकिन उसकी यहां व्याख्या करना संभव नहीं. साभार bbc