आज भारतीय बाज़ार विश्व के विकसित देशों का कूड़ाघर हो गया है । जो वस्तुएं अन्य देशों में उपयोग से बाहर हो जाती हैं उन्हें निर्माता कम्पनियाँ भारत में खपा देतीं हैं । जनता तो सस्ता माल देखकर खरीदनें को आतुर हो जाती है, चाहे क्यों न वह वस्तु चार दिन की चाँदनी बाकी अँधेरी रात ही हो । भात सरकार ने सेकेण्ड हैण्ड वस्तुओं के क्रय-विक्रय हेतु कोई नियम नहीं बनाया है जिससे यहाँ के उपभोक्ता कै बार ठगी का शिकार होते हैं । अपने नागरिकों के हितों का ध्यान रखना सरकार का प्रथम कर्तव्य है परन्तु भारतीय सरकार इस विषय में पूर्णतः उदासीन है । जनता प्रत्येक विषय में स्वतः जागरूक नही हो सकती बल्कि उसे जागरूक करता है तद्विषयक विद्वान् वर्ग । सरकार को चाहिये कि वो इस विषय के विशेषज्ञ को इस कार्य के लिये नियुक्त करे तथा क्रय-विक्रय के कुछ कारगर नियम बनाए। आज भारत को विदेशी कम्पनियाँ अपना माल खपाने का श्रेष्ठ और सस्ता स्थान समझती हैं । भारत सरकार को उनका यह दृष्टिकोण बदलने के लिये कड़ा कानून बनाना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं है जब भारत विदेशों का कूड़ाघर बन जायेगा । इस प्रवृत्ति का सबसे भयंकर परिणाम जो हमारे सामने आयेगा वह है पर्यावरण प्रदूषण। भरत में अधिक जनसंख्या के कारण अपने कूड़े को ठिकाने लगाने तक का स्थान नही है । ऐसे में उसका विदेशी सेकेण्ड हैण्ड वस्तुओं को बटोरना और इस तरफ़ से आँख मूँद लेना भविष्य में विस्फोटक स्थिति को पैदा करेगा जब हमारी अगली पीढी हमसे इस विषय में प्रश्न करेगी ।अतः सरकार को इस क्षेत्र में भी ध्यान देना चाहिये क्योंकि इसका सीधे सरोकार जन-स्वास्थ्य से है । जनता के स्वास्थ्य की रक्षा और उनकए जीवन-स्तर में सुधार सरकार का महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है । जीवन-स्तर में सुधार सेकेण्ड हैण्ड वस्तुओं को कम दामों में बाज़ार में बेंचने से नही हो सकता । इस सुधार के लिये प्रत्येक व्यक्ति को रोज़गार मुहैया कराया जाना चाहिए ताकि बेरोजगारी और प्रच्छन्न बेरोजगारी से मुक्ति मिल सके तथा भारत विदेशों का कूड़ाघर बनने से बच सके । लोगो के पास जब क्रयशक्ति होगा तो वे सेकेण्ड हैण्ड वस्तुएँ नही खरीदेंगे तथा वस्तुओं की गुणवत्ता पर भी ध्यान देंगे । अतः सरकार इस सन्दर्भ में अपने कर्तव्य पर ध्यान देने की ज़रूरत है ।
प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों दो भिन्न - भिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। एक समतामूलक है , दूसरी शोषणपरक। भारतीय संस्कृति प्राच्य की प्रतिनिधि है। यह संस्कृति सनातन गंगा प्रवाह है , जिसमें कूटस्थ नित्यता भी है , प्रवाह नित्यता भी । जिस प्रकार गंगा सतत् प्रवाहित हो रही है , परन्तु उसका प्रत्येक बिन्दु जल नवीन है , उसी प्रकार भारतीय संस्कृति भी सातत्य के साथ नवता का समावेश करते हुए चलती है। वेद कहता है ‘ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः ’ अर्थात् आदर्श विचारों को सब ओर से आने दो। जिस प्रकार एक वटवृक्ष से अनेक शाखायें - प्रशाखायें निकलकर उस वृक्ष को सहारा देती हैं , उसी प्रकार भारतीय ज्ञान परम्परा की अनेक चिन्तन धारायें भारतीय संस्कृति के अजस्र स्रोत के अबाध गति को बनाये रखने में अपना योगदान देती हैं। भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना आज इतने परिवर्तनों के बावजूद भी अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है। सम्बन्धों की संवेदना से मानवीय संवेदना के स्तर तक प्राच्य एवम् पाश्चात्य में आधारभूत...
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