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Showing posts from August 24, 2008

लोकसंस्कृति में पर्यावरण संरक्षण-१ (होली)

भारतीय मनीषा में ही नही अपितु यहाँ के जन-जन के मानस में प्रकृति के कण-कण के प्रति भ्रातृभाव की भावना शताब्दियों से रची-बसी है । प्रकृति-संरक्षण का दर्शन हमें हमारे रीति-रिवाज़ो, परम्पराओं ,लोकगीतों में सर्वत्र होता है । वेद, वेदाङ्ग, ब्राह्मण, आरण्यक,उपनिषद्, दर्शन, पुराण, आदि तो प्रकृति पूजा के आकर ग्रन्थ हैं। आज भी भारत की ग्रामीण जनता सायंकाल के बाद किसी पेड की पत्ती नहीं तोडती । सायंकाल के बाद पत्ती तोडना वह पाप समझती है । मातायें अपनें बच्चों को बताती हैं कि पेड सो रहे हैं पाप पडेगा यदि तुम उनके सोने में बाधा डालोगे। भारतीय वार्षिक कार्यव्यवस्था प्रकृति को ध्यान में रखकर बनायी गयी है । इसीलिये मधुमास वसन्त से प्रारम्भ होती है हमारी ऋतुव्यवस्था, जो भारत के भौगोलिक स्थिति के लिये आज भी सर्वोपयुक्त है । चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हमारा नव वर्ष विक्रम संवत् प्रारम्भ होता है । यह काल शीतऋतु और ग्रीष्म ऋतु का सन्धिकाल काल होता है प्रकृति अपने नव-नव कोपलों से नववधू सी सजी होती है। खेत हरियाली से भरे रहते है लगता है कि मात्र मानव ही नही वरन् सम्पूर्ण प्रकृति नववर्ष का उत्सव मना रही है । हमारे

सङ्गति

सङ्गति का मानव जीवन ही नही अपितु प्राणिमात्र के जीवन में बहुत महत्त्व है । शुक भी यदि वेदपाठी के साथ रहे तो वह वेद पाठ करने लगता है । ऎसे हमारे यहाँ अनेक उदाहरण हैं। सन्त कबीरदास का दोहा है:- सङ्गति ही गुण होत है सङ्गति ही गुण जाय। बाँस, फाँस औ मीसरी एकहि साथ बिकाया ॥ अर्थात् सङ्गति का बहुत प्रभाव पडता है। सङ्गति के कारण ही मिसरी के साथ बाँस का भी भाव बढ गया जिसकी वस्तविक कीनत पाई भर भी नही थी । एक कलाकार की संगति से इक रास्ते में ठोकर मारने के कारण अनेक बार पथिकों क कोपभाजन बनने वाला बेडौल प्रस्तर भी सुन्दर मूर्ति का रूप धारण कर लेता है और कलाप्रश्ंशकों के प्रसंशा का पात्र बनता है । इसलिये संगति पर ध्यान देना अति आवश्यक है क्योंकि कहा गया है:- काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय । एक लीकि काजल की लागि पै है लागि है ।। अर्थात् काजल से भरे कक्ष में कितना भी बचकर जाओ काजल कहीं न कहीं लग अवश्य जायेगा , क्योंकि उसका ऎसा स्वभाव है ।अब्दुर्रहीम खानखाना की यह उक्ति मात्र महापुरुषों पर खरी उतरती है कि:- जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापत नही लिपटे रहत भुजंग ॥ प्रत्येक व्