भारतीय मनीषा में ही नही अपितु यहाँ के जन-जन के मानस में प्रकृति के कण-कण के प्रति भ्रातृभाव की भावना शताब्दियों से रची-बसी है । प्रकृति-संरक्षण का दर्शन हमें हमारे रीति-रिवाज़ो, परम्पराओं ,लोकगीतों में सर्वत्र होता है । वेद, वेदाङ्ग, ब्राह्मण, आरण्यक,उपनिषद्, दर्शन, पुराण, आदि तो प्रकृति पूजा के आकर ग्रन्थ हैं। आज भी भारत की ग्रामीण जनता सायंकाल के बाद किसी पेड की पत्ती नहीं तोडती । सायंकाल के बाद पत्ती तोडना वह पाप समझती है । मातायें अपनें बच्चों को बताती हैं कि पेड सो रहे हैं पाप पडेगा यदि तुम उनके सोने में बाधा डालोगे। भारतीय वार्षिक कार्यव्यवस्था प्रकृति को ध्यान में रखकर बनायी गयी है । इसीलिये मधुमास वसन्त से प्रारम्भ होती है हमारी ऋतुव्यवस्था, जो भारत के भौगोलिक स्थिति के लिये आज भी सर्वोपयुक्त है । चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हमारा नव वर्ष विक्रम संवत् प्रारम्भ होता है । यह काल शीतऋतु और ग्रीष्म ऋतु का सन्धिकाल काल होता है प्रकृति अपने नव-नव कोपलों से नववधू सी सजी होती है। खेत हरियाली से भरे रहते है लगता है कि मात्र मानव ही नही वरन् सम्पूर्ण प्रकृति नववर्ष का उत्सव मना रही है । हमारे नववर्ष से कुछ दिन पूर्व फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका उत्सव होता है । यह पर्व एकता का प्रतीक है । इससे सम्बन्धित एक कथा भी है प्रह्लाद के विषय में कि उसके पिता हिरण्यकश्यप भगवान् का नाम लेने के कारण उसका दहन करवाना चाहते हैं । जिसके लिये वो अपनी बहन होलिका, अर्थात् प्रह्लाद की बुआ को प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठने को कहते हैं । होलिका के पास एक विशेष प्रकार का वस्त्र होता है जो आग में नहीं जलता । होलिका आग में बैठती है और उस वस्त्र से प्रह्लाद को ढक देती है । अन्ततः होलिका जल जाती है और प्रह्लाद बच जाता है। उसी के प्रतीक स्वरूप आज भी यह पर्व पूर्ण हर्षोल्लास से मनाया जाता है । कहीं-कहीं होली की पूर्व सन्ध्या पर परिवार के समस्त सदस्यों के पूरे शरीर में सरसो का उबटन लगाने की प्रथा है, जिससे बचे हु्ये अवशेष (लीझी) को प्रातःकाल होलिका में समर्पित कर दिया जाता है और माना जाता है कि ऎसा करने वालों को वर्ष भर कोई रोग नही होगा। इस प्रथा के पीछे कहीं न कहीं हमारे पूर्वजों की वैज्ञानिक दृष्टि अवश्य रही होगी क्योकि शीत ऋतु में कडाके की ठण्ड के कारण प्रत्येक मनुष्य स्नान नही करना चाहता अतः स्वाभाविक है कि शरीर मे गन्दगी अवश्य होगी । महीनों से जमी गन्दगी को साफ करने के लिये उबटन से अच्छा कोई विकल्प नही है । इससे शुद्धता के साथ-साथ शरीर की मालिश भी हो जायेगी । लोग अपने व्यस्ततम कार्यक्रम से इसके लिये भी दिन निकालेंगे। तथा वह गन्दगी होलिका के साथ जल जायेगी व्यर्थ प्रदूषण नही फैलायेगी ।
होली के दिन प्रातःकाल खेतों से नवान्न लाकर उसको होलिका में भूनकर खाने की प्रथा भी है ।लोग प्रातः काल खेतों से जौ अलसी आदि लाकर उसको होलिका तापते हुए वहीं पर भून लेते है तथा उसको उसके प्राकृतिक रूप में एक-एक दाना छीलकर खाते हैं। होली से कई दिनों पहले से ही सब जगह रंग चलने लगता है । अब तो बाज़ार में कृत्रिम रंग उपलब्ध है जो स्वास्थ्य के प्रति हानिकारक भी है पर लोग उसका प्रयोग करते है जो अनुचित और निन्दनीय है । पर पहले जब कृत्रिम रंग नही उपलब्ध थे तब लोग प्राकृतिक रण्गों का प्रयोग करते थे। इन रंगो को बनाने के लिये विभिन्न प्रकार के फूलों के रस का प्रयोग किया जाता था । टेसू का फूल विशेष रूप से काम में आता था ।रंग खेलने के पीछे हमारे पूर्वजों की दृष्टि शारीरेक और मानसिक स्वच्छता दोनों थी । रंगो को छुडाने में शीतऋतु की समस्त शारीरिक अशुद्धता तो दूर होती ही साथ ही साथ यदि किन्ही दो व्यक्तियों या परिवारों में मनमुटाव होता वह भी दूर हो जाता क्योंकि होली सामाजिक सौहार्द्र का पर्व है । इस दिन दोपहर तक रंग खेलने के बाद लोग स्नान करके नूतन वस्त्र धारण करके एक-दूसरे के घर होली मिलने जाते हैं । इससे परस्पर हृदयों में प्रेम का सूत्रपात होता है । सारे गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं । होली के कई दिनों पूर्व से ही पकवान बनने लगते हैं तथा अतिथियों का उनसे स्वागत किया जाता है । बहुत से क्षेत्रों में होली के दिन पान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहता है । भारतीय संस्कृति में पान को शुभ-सूचक माना जाता है । होली के दिन प्रत्येक होली मिलने वालों को पकवान खिलाने के साथ-साथ पान खाना अनिवार्य होता है । होली के दिन कभी पान न खाने वाले लोग भी पान खाते हैं । इत्र का भी इस पर्व पर बहुत महत्त्व है । इस दिन आने वाले अतिथियों के इत्र लगाने की प्रथा भी कहीं-कहीं है । कुछ स्थानों पर नाई द्वारा होली के दिन दर्पण दिखाने की प्रथा भी है । नाई इस दिन दर्पण लेकर अपने यजमानों के घर जाता है और उस घर के सभी लोग दर्पण देखते हैं तथा नाई को पैंसे देते हैं। इस प्रथा का कारण भी कही न कही सफाई ही है । होली के दिन लोग ठीक से स्नान करके नव परिधान धारन करते है तथा उल्लास से पूर्ण रहते हैं। इस दिन सारा कूडा-करकट होलिका की भेंट चढ जाता है तथा सब जगह स्वच्छता दिखाई पडती है जिससे बीमारी फैलने की आशंका कम रहती है ।
होलिका दहन में गोबर के उपलों तथा अन्य व्यर्थ वस्तुओं के ढेर को होलिका का प्रतीक माना जाता है तथा प्रह्लाद बनता है रेण(अरण्ड) का एक पौधा जिसकी लकडी किसी काम की नही होती । उसको आग लगाते ही लिग निकाल लेते हैं । इस प्रकार प्रह्लाद को बचा लिया जाता है । अरण्ड की लकडी तो किसी काम की नही होती पर उसके बीजों का तेल वायु रोग में बहुत लाभदायक है तथा उसके तेल को वनस्पति तेल में भी प्रयोग में लाया जाता है । अरण्ड को प्रह्लाद मानने के पीछे हमारे पूर्वजों की पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि ही है ताकि लोग कम से कम प्रह्लाद का प्रतीक मानने के कारण उसके पेड को उखाडे नही उसकी रक्षा करें क्योकि प्रत्येक वृक्ष पर्यावरण का इक महत्त्वपूर्ण घटक है ।
होली के दिन प्रातःकाल खेतों से नवान्न लाकर उसको होलिका में भूनकर खाने की प्रथा भी है ।लोग प्रातः काल खेतों से जौ अलसी आदि लाकर उसको होलिका तापते हुए वहीं पर भून लेते है तथा उसको उसके प्राकृतिक रूप में एक-एक दाना छीलकर खाते हैं। होली से कई दिनों पहले से ही सब जगह रंग चलने लगता है । अब तो बाज़ार में कृत्रिम रंग उपलब्ध है जो स्वास्थ्य के प्रति हानिकारक भी है पर लोग उसका प्रयोग करते है जो अनुचित और निन्दनीय है । पर पहले जब कृत्रिम रंग नही उपलब्ध थे तब लोग प्राकृतिक रण्गों का प्रयोग करते थे। इन रंगो को बनाने के लिये विभिन्न प्रकार के फूलों के रस का प्रयोग किया जाता था । टेसू का फूल विशेष रूप से काम में आता था ।रंग खेलने के पीछे हमारे पूर्वजों की दृष्टि शारीरेक और मानसिक स्वच्छता दोनों थी । रंगो को छुडाने में शीतऋतु की समस्त शारीरिक अशुद्धता तो दूर होती ही साथ ही साथ यदि किन्ही दो व्यक्तियों या परिवारों में मनमुटाव होता वह भी दूर हो जाता क्योंकि होली सामाजिक सौहार्द्र का पर्व है । इस दिन दोपहर तक रंग खेलने के बाद लोग स्नान करके नूतन वस्त्र धारण करके एक-दूसरे के घर होली मिलने जाते हैं । इससे परस्पर हृदयों में प्रेम का सूत्रपात होता है । सारे गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं । होली के कई दिनों पूर्व से ही पकवान बनने लगते हैं तथा अतिथियों का उनसे स्वागत किया जाता है । बहुत से क्षेत्रों में होली के दिन पान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहता है । भारतीय संस्कृति में पान को शुभ-सूचक माना जाता है । होली के दिन प्रत्येक होली मिलने वालों को पकवान खिलाने के साथ-साथ पान खाना अनिवार्य होता है । होली के दिन कभी पान न खाने वाले लोग भी पान खाते हैं । इत्र का भी इस पर्व पर बहुत महत्त्व है । इस दिन आने वाले अतिथियों के इत्र लगाने की प्रथा भी कहीं-कहीं है । कुछ स्थानों पर नाई द्वारा होली के दिन दर्पण दिखाने की प्रथा भी है । नाई इस दिन दर्पण लेकर अपने यजमानों के घर जाता है और उस घर के सभी लोग दर्पण देखते हैं तथा नाई को पैंसे देते हैं। इस प्रथा का कारण भी कही न कही सफाई ही है । होली के दिन लोग ठीक से स्नान करके नव परिधान धारन करते है तथा उल्लास से पूर्ण रहते हैं। इस दिन सारा कूडा-करकट होलिका की भेंट चढ जाता है तथा सब जगह स्वच्छता दिखाई पडती है जिससे बीमारी फैलने की आशंका कम रहती है ।
होलिका दहन में गोबर के उपलों तथा अन्य व्यर्थ वस्तुओं के ढेर को होलिका का प्रतीक माना जाता है तथा प्रह्लाद बनता है रेण(अरण्ड) का एक पौधा जिसकी लकडी किसी काम की नही होती । उसको आग लगाते ही लिग निकाल लेते हैं । इस प्रकार प्रह्लाद को बचा लिया जाता है । अरण्ड की लकडी तो किसी काम की नही होती पर उसके बीजों का तेल वायु रोग में बहुत लाभदायक है तथा उसके तेल को वनस्पति तेल में भी प्रयोग में लाया जाता है । अरण्ड को प्रह्लाद मानने के पीछे हमारे पूर्वजों की पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि ही है ताकि लोग कम से कम प्रह्लाद का प्रतीक मानने के कारण उसके पेड को उखाडे नही उसकी रक्षा करें क्योकि प्रत्येक वृक्ष पर्यावरण का इक महत्त्वपूर्ण घटक है ।
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