रक्षाबन्धन भी एक सौहार्द्र का पर्व है । श्रावण पूर्णिमा के दिन इसे मनाया जाता है । इसकी मान्यता रक्षा पर्व के रूप में है । एक कथा स्वतंत्रता संग्राम से संबन्धित है कि रानी कर्मवती ने हुमायूँ को रक्षा-सूत्र भेजा था । उस समय यातायात के साधन अल्पविकसित अवस्था में थे अतः दूत जब तक रानी कर्मवती का संदेश लेकर हुमायूँ के पास तक पहुँचा और हुमायूँ कर्मवती की रक्षा के लिये सेना लेकर आये तब तक कर्मवती को वीरगति प्राप्त हो चुकी थी । रक्षाबन्धन के विषय में यह अप्रतिम उदाहरण् अहै जब एक मुस्लिम शासक रक्षा करने आया । प्राचीन काल में इस पर्व का स्वरूप ऎसा नही था जैसा अब यह पर्व संकुचित होकर मात्र भाई-बहनों तक सीमित हो गया है जबकि प्राचीन कालमें यह सस्म्पूर्ण समाज के लिये होता था । इस पर्व पर लोग एक-दूसरे की रक्शा का व्रत लेते थे तथा परस्पर कोई विपत्ति आने पर रक्षा का वचन भी देते थे । यह पर्व समाज को एक सूत्र में पिरोता था । श्रावण मास की हरियाली के बीच यह पर्व एक नूतन उत्साह का सृजन करता था तथा लोग निर्भीक होकर अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते थे । किसी समाज व व्यक्ति के आत्मिक , सामाजिक व सांस्कृतिक विकास के लिये निर्भयता अपरिहार्य शर्त है । भारतीय समाज का स्वर्णकाल तभी था जब समाज पूर्णतः निर्भय था । किसी भी नव-सृजन के लिये निर्भयता आवश्यक है । इस बात को हमारे पूर्वज अच्छी तरह जानते थे इसीलिये उन्होंने परस्पर ईर्ष्या-द्वेष के शमन के लिये समय-समय पर अनेक पर्वों का नियोजन किया ताकि सामाजिक सौहार्द्र बना रहे ।
श्रावण पूर्णिमा को भारत के विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। तथा अलग-अलग रूप में मनाया जाता है । दक्षिण भारत में जहाँ नारियल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, इसे नारियली पूर्णिमा तथा अवनी अवित्तम कहा जाता है ।मध्य भारत में कहीं-कहीं इसे कजरी पूनम कहा जाता है । उत्तर भारत में यह रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाता है । गुजराती इसे पवित्रोपना के रूप में मनाते हैं । वस्तुतः सम्पूर्ण भारत में यह त्यौहार मनाया जाता है पर विभिन्न नामों से ।
दक्षिण भारत समुद्रतटीय है वहाँ समुद्र जीविका का एक प्रमुख साधन है तथा सदियों से रहा है ।अतः इस दिन वहाँ समुद्र देवता की पूजा की जाती है । चूँकि इस समय मानसून वापस जा रहा होता है अतः समुद्र शान्त होता है। ऎसे में मछुवारे अपनी-अपनी नावों को सजाकर समुद्र तट पर लाते हैं तथा नाच-गाने के साथ वरुण् अ-देव को नारियल का फल अर्पित कर अपने व्यवधान रहित जीवन की कामना करते हैं ।
नारियली पूर्णिमा में वरुण देव. समुद्र देव की पूजा की प्रथा भारतीय पर्यावरण जागरूकता को दर्शाती है । इससे भारतीयों का प्रकृति के उपादानों के प्रति विनय भाव परिलक्षित होता है ।
नारियली पूर्णिमा पर नारियल अर्पण का भी एक कारण है ।नारियल के तीन आँखे होने के कारण उसे त्रयम्बक शिव का प्रतीक माना जाता है । शिव अपनी कृपादृष्टि बनाये रहे क्यों कि वे प्रलय लाने वाले देवता है अतः उनकी कृपा आवश्यक है अन्यथा नर से नारायण बनने में देर न लगेगी ।
श्रावण पूर्णिमा को मध्य भारत तमिलनाडु, उडीसा, केरल तथा महाराष्ट्र में अवनी अवित्तम के रूप में मनाया जाता है । मूलतः ये यजुर्वेदपाठी ब्राह्मणों का पर्व है । वे इस दिन पापों से चुटकारा पाने के लिये महासंकल्प लेते हैं। तथा स्नान करके नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं। इसी दिन वे यजुर्वेद पढना प्रारम्भ करते हैं । इस दिन के विष्य में एक भारतीय मान्यता है कि इसी दिन भगवान् विष्णु ने हयग्रीव के रूप मे अवतार लेकर ज्ञान का प्रकाश फैलाया था । अतः यह दिन महत्त्वपूर्ण है ।
गुजरात मे श्रावण पूर्णिमा पवित्रोपासना के रूप में मनायी जाती है । इस दिन शिव की उपासना की जाती है । सम्पूर्ण माह शिव को जल चढाने के बाद श्रावण पूर्णिमा को शिव को अन्तिम बार जल चढाय जाता है । इस दिन पञ्चगव्य में रुई की बाती डुबोकर शिव को अर्पित की जाती है ।
उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश्, छत्तीसगढ में यह पर्व कजरी पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है । श्रावण अमावस्या के नवम् दिन कजरी नवमी से इस पर्व की तैयारी का प्रारम्भ होता है । मूलतः यह त्यौहार पुत्रवती स्त्रियों के लिये होता है । नवमी के दिन वे खेत से पत्तों में मिट्टी भरकर लाती है तथा उसमें जौ का वपन करके उन्हें अँधेरे में रख दिया जाता है । इन पात्रों के रखने के स्थान पर चावल में हल्दी घोलकर आलेखन किया जाता है । कजरी पूर्णिमा के दिन कहीं-कहीं अंकुरित जौ को सिर पर रखकर स्त्रियाँ एक साथ मिलकर समीपस्थ नदी या तालाब में विसर्जित करने जाती हैं तथा पूरे दिन उपवास रखकर पुत्र के दीर्घायु की कामना करती हैं ।
रक्षाबन्धन बहुत विस्तृत क्षेत्र में मनाय जाता है। प्राचीन काल में ब्राह्मण लोग राजा को अपने रक्षा के लिये राखी बाँधते थे । आज भी कहीं –कहीं ब्राह्मण राखी बाँ धते हैं । समय परिवर्तनशील है अतः समय के साथ बहुत कुछ परिवर्तित हो जाता है । रक्षाबन्धन पर्व के निहितार्थों में भी समय के साथ-साथ परिवर्तन हुआ है । फलतः आज हम रक्षाबन्धन में स्वार्थ की गन्ध पा सकते हैं । जहाँ पर किसी वस्तु का मापदण्ड आर्थिक हो जाता है वही पर वह वस्तु अपनी गरिमा से स्खलित होने लगती है । यही बात रक्षाबन्धन पर भी लागू होती है । आज प्रेम का स्थान अधिकांशतः स्वार्थ ने ले लिया है । कुछ भी हो हमारे पूर्वजों ने सुदृढ सामाजिक व्यवस्था के लिये इस पर्व का प्रारम्भ किया था । यदि सामाजिक पर्यावरण सही रहेगा तो लोगो में लोभ की भावना नही जागृत होगी। उनका जीवन-यापन कुछ इस तरह होगा-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, मा गृधः कस्यस्विद् धनम् ॥
ऎसे में प्राकृतिक पर्यावरण स्वतः सम्यक् रहेगा । क्योंकि ऎसे समाज में दोहन और शोषण का प्रश्न ही नही उठेगा ।
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