प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों दो भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। एक समतामूलक है, दूसरी शोषणपरक। भारतीय संस्कृति प्राच्य की प्रतिनिधि है। यह संस्कृति सनातन गंगा प्रवाह है, जिसमें कूटस्थ नित्यता भी है, प्रवाह नित्यता भी। जिस प्रकार गंगा सतत् प्रवाहित हो रही है, परन्तु उसका प्रत्येक बिन्दु जल नवीन है, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति भी सातत्य के साथ नवता का समावेश करते हुए चलती है। वेद कहता है ‘आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः’ अर्थात् आदर्श विचारों को सब ओर से आने दो। जिस प्रकार एक वटवृक्ष से अनेक शाखायें-प्रशाखायें निकलकर उस वृक्ष को सहारा देती हैं, उसी प्रकार भारतीय ज्ञान परम्परा की अनेक चिन्तन धारायें भारतीय संस्कृति के अजस्र स्रोत के अबाध गति को बनाये रखने में अपना योगदान देती हैं।
भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना आज इतने परिवर्तनों के बावजूद भी अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है। सम्बन्धों की संवेदना से मानवीय संवेदना के स्तर तक प्राच्य एवम् पाश्चात्य में आधारभूत अन्तर है। जहाँ प्राच्य संस्कृति कहती है कि वृद्धों की सेवा से आयु, विद्या, यश एवं बल की प्राप्ति होती है, वहीं पाश्चात्य जगत् में वृद्धों को वृद्धाश्रम की राह पकड़ा दी जाती है। मृतप्राय संवेदनायें जीवन में असुरक्षा की वृद्धि करती हैं, फलतः, तलाक, आत्महत्या आदि सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। यही नहीं प्राच्य एवं पाश्चात्य के सम्पूर्ण सभ्यतामूलक विमर्श में ही महान् अन्तर है। हमारी संस्कृति के केन्द्र में श्रुतिपरम्परा है- वाक्, वाङ्गमय, शास्त्र, गीर्वाण, वाणी, श्रुति, स्मृति, अनुवाद आदि, जबकि पाश्चात्य सभ्यता अक्षर (letter) केन्द्रित है तभी वहाँ साहित्य के लिये शब्द है-Literature, जो letter से निःसृत हुआ है ।
प्राच्य संस्कृति में कण-कण के प्रति कृतज्ञता का भाव परिलक्षित होता है। वृक्षों में जीवन की सिद्धि के बहुत पूर्व ही हमारे यहाँ वृक्षों में जीवन माना जाता रहा है। जब शकुन्तला वृक्ष-सेचन के विना जल नहीं ग्रहण करती, पुष्पप्रेमी होते हुए भी पुष्पों को नहीं तोड़ती एवं जब पृथ्वीसूक्त का ऋषि कहता है कि ‘माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या’ तो वहाँ कण-कण में जीवन की ही भावना अन्तर्भूत होती है। प्रकृति के प्रति संवेदना हमारे समाज का अंग है, यही कारण है कि भारतीय जनजातीय जनता पर्यावरण-मित्र है, पीपल, बरगद, आम, नीम आदि वृक्षों को हम देवतुल्य मानते हैं, पशुओं की पूजा करते हैं, साँप को दूध पिलाते हैं, मदार एवं धतूर को शिव का प्रिय भोज्य मानकर उसका संरक्षण करते हैं, कोयल की कूक, पपीहे की पुकार, चकवा-चकवी के प्रेम प्रसंग के विना हमारे लोकगीत अधूरे रहते हैं तथा हम बचपन से ही यह जानते हैं कि गोधूलि के बाद पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए।
हम संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन करविकास के पक्षधर नहीं है, आज भी हमारी अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है। भारतीय पर्व एवं त्योहार में प्रकृतिमयता की झलक दिखती है। पाश्चात्य देशों ने औपनिवेशिक काल में क्या किया है, तथा आज क्या कर रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। वनों के अन्धाधुन्ध दोहन, वन्यजीवों के शिकार, तथा स्थानीय निवासियों के बलपूर्वक विस्थापन से पूरा इतिहास भरा पड़ा है। दक्षिण एशिया, द.पू. एशिया, द. अमेरिका, एवं अफ्रीका के जंगलों का विनाश कर वानिकी के नाम पर पूरे पारितन्त्र के साथ खिलवाड़ पूर्व ने नहीं तथाकथित सभ्य पश्चिम ने किया था। न्यूटन, एवं डेकार्ट के विचारों पर नर्तन करने वाले इन तथाकथित सभ्यों ने जावा, सुमात्रा एवम् बर्मा के द्वीपीय पारितन्त्र का विध्वंस, अमेरिका के मूल निवासियों का विस्थापन एवं अफ्रीका में दासवृत्ति की शुरुआत की थी।
पाश्चात्य सभ्यता के केन्द्र में पूँजी है, अपने देश में ‘समानता एवम् न्याय’ की वकालत करने वाले इन छद्म पाश्चात्यों नें वैश्विक संस्कृति को जो क्षति पहुँचायी है, तथा पर्यावरण का जैसा दोहन किया है, वह अकथनीय है।
प्राच्य संस्कृति ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ अर्थात् त्यागपूर्वक उपभोग का अनुसरण करती है जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हमें अभी हाल ही में हो चुका है, जब पूरे विश्व पर आर्थिक मन्दी की मार पड़ी तब भारत जैसा विकासशील देश लगभग अप्रभावित रहा। ऐसा यहाँ के नागरिकों के बचत एवं आवश्यकतानुसार उपभोग की प्रवृत्ति के कारण ही सम्भव हो सका।
यह प्राच्य संस्कृति का औदार्य ही है जिसके कारण शताब्दियों से संसार के विभिन्न भागों के लोग इसके धर्म, दर्शन, अध्यात्म, जीवन-पद्धति के प्रति आकृष्ट हुए हैं, तथा आज भी हो रहे हैं। चाहे व्यक्ति किसी भी जाति, धर्म, भाषा, वर्ण, समाज, अथवा देश का हो हमारी संस्कृति ने उसे सहर्ष अपनाया है, उसने अपना बना लिया है। यही कारण है कि भारत शताब्दियों से शोषितों, पीड़ितों की शरणस्थली रहा है।
भारतीय संस्कृति मानव मात्र, जीवमात्र से प्रेम करने का संदेश देती है। यहाँ ज्ञानपरक बातें मात्र विद्वानों तक सीमित नहीं है, अपितु एक साधारण घसियारा तक यहाँ ज्ञानी है। आप एक बच्चे से भी मूल्यपरक बातें सीख सकते हैं। ज्ञान पोथियों तक सीमित न होकर व्यवहार में परिणत है।
भारत में सभी मतों के अनुयायी परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। सभी को धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त है। संयम भारतीय जीवनपद्धति की एक अनिवार्य विशेषता है। यह विशेषता पाश्चात्य पद्धति में कदापि नहीं मिल सकती। भोगवादी प्रवृत्ति, त्याग का सामना भला कैसे कर सकती है?
पश्चिम ने, डेकार्ट के कथन ‘Man is a Machine’ को आधार बनाकर मानव को संसाधन मानकर उसको शोषण के स्तर तक ला दिया है। पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, जहाँ श्रम सस्ता होता है, वहीं अपना उद्योग लगाना पसन्द करती हैं। प्रकृति, पर्यावरण, जलवायु से उसे कुछ सरोकार नहीं हैं।
आज पश्चिमी देश, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन आदि की आड़ में विकासशील एवम् अल्पविकसित देशों पर निरन्तर दबाव डाल रहे हैं कि वे अपने यहाँ कृषिकार्य पर देने वाली सब्सिडी कम करें,जबकि अपने देश में वे किसानों को इतनी सब्सिडी देते हैं कि यदि वे उचित मूल्य पर बिक्री के अभाव में समुद्र में भी फेंक दें। ऐसी विचारधारा को न्यायपरक, समतामूलक तो कदापि नहीं कहा जा सकता।
वस्तुतः पूरब एवं पश्चिम के उस आधार में ही अन्तर है, जिसपर दोनों विचारधारायें टिकी हैं। मेरे विचार से इस वैचारिक अन्तर को कदापि मिटाया नहीं जा सकता। चूंकि विचार ही व्यवहार का मूल है, अतः वैचारिक एवं व्यावहारिक सभी स्तरों पर सर्वदा ये दो ध्रुवीय विचारधारायें विद्यमान रहेंगी।
Note- प्रतियोगिता दर्पण, वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कृत निबन्ध, पक्ष में।
Note- प्रतियोगिता दर्पण, वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कृत निबन्ध, पक्ष में।
Comments
बहुत मुकेश जी , अच्छा निबंध ..प्रतियोगिता दर्पण द्वारा पुरष्कृत हुआ इसके लिए बधाई ..
सार गर्भित लेख के लिए साधुवाद!
भारतीय जीवन दर्शन शील एवं सदाचार पर आधारित है। इसमें समाहित किए गए अधिकांश विचार अनेकानेक परिक्षणों से गुजरे हुए हैं। अतएव वैज्ञानिकता से परिपूर्ण हैं। इसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर बुद्ध ने कहा था-"किसी बात को इसलिए मत मानो कि वह किसी महापुरुष ने कही है अथवा किसी किसी ग्रन्थ में दर्ज है अथवा मैं उसे कह रहा हूँ। अपितु उस बात को मानो जो बार-बार परिक्षण करने के उपरान्त बहु-जनों के लिए कल्याण कारी हो।" संसार सभी धर्म-गुरू अथवा उपदेशक अपने पीछे आँख बंद कर चलने का निर्देश देते हैं परन्तु बुद्ध अपने कथनों को भी परिक्षणों की कसौटी पर परखने की सलाह देते हैं। ऐसी परंपरा भारत के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है।
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सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
please visit my blog.thanks.
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (28-01-2015) को गणतंत्र दिवस पर मोदी की छाप, चर्चा मंच 1872 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'