पर्यावरण की रक्षा करना प्रत्येक मानव का नैतिक कर्तव्य है । आज प्रकृति के लगातार दोहन के परिणामस्वरूप प्रकृति क्रुद्ध हो गयी है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज पूरे भारत में बाढ़ से हो रही तबाही है चाहे वो गुजरात का कच्छ हो अथवा बिहार हो । आज भारत का हर कोना बाढ़ से प्रभावित है । अत्यधिक शोषण व दोहन का भला इससे भयावह परिणाम और क्या होगा ? पर्यावरण के प्रति जो चैतन्यता हमारे पूर्वजों ने सृजित की थी वो आज अस्तित्व में नहीं रही है । प्राचीन भारतीय दृष्टि जो प्रकृति को श्रद्धा से देखती थी तथा प्रकृति के उपादानों की पूजा-अर्चना करती थी आज बदल गयी है । आज हमारे पास वे त्यौहार तो हैं जो हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के सरंक्षण को ध्यान में रखकर प्रारम्भ किये थे पर उनकी जो दृष्टि थी उसका हमारे मध्य नितान्त अभाव है । यही कारण है कि आज पर्यावरण के प्रति ही नही वरन् मानव के प्रति भी हमारी संवेदनशीलता कम होती जा रही है । शहरी इलाको में रहने वाले लोगों से तो सामाजिकता भी अपने सच्चे अर्थों में दूर होती जा रही है उअसके नाम पर अब चोंचला ही शेष रह गया है जो किटी पार्टियों आदि के माध्यम से अपना कृत्रिम कलेवर लेकर हमारे सामने आता है । उनकी जो तथाकथित संस्कृति है उसमें मानव के प्रति भी संवेदनशून्यता व्याप्त है । ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी भारत की आत्मा जीवित है अपने वास्तविक पूर्ण स्वरूप में न सही पर उसकी झलक तो है वहाँ पर शहरी क्षेत्र विशेषकर महानगरीय जीवन पूर्णतः बदल गया है । तभी तो पड़ोसी की हत्या हो जाती है और अगल-बगल वालों को पता तक नही चलता । भला उनका किसी पड़ोसी से क्या सरोकार ? भारत के कई महानगर आज सर्वाधिक प्रदूषित महानगरों की सूची में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित हैं कानपुर का इसमें विशेष स्थान है। जहाँ जाकर बाहर के लोगों का दम घुटना स्वाभाविक है । वहाँ चमड़े के कारखानोंने पूरे शहर में विष घोल दिया है जिससे आसपास के क्षेत्र भी अछूते नही रह गये हैं ।आज सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण की समस्या से पीड़ित है तथा इसके लिये वास्तविक न सही पर कागजी प्रयास कर रहा है । बाली आदि में पर्यावरण सम्मेलन हो रहे हैं तथा परिणाम ढाक के तीन पात निकल रहा है । इअसमें मूल कारन यह है कि पर्यावरण विषयक नीतियां बनाने वाले लोग आज इतने सुविधाभोगी हो गये हैं कि वे अपनी सुविधाओं में बिल्कुल भी कटौती नहीं करना चाहते । वे दूसरो से अपेक्षा करते हैं कि वे अपनी इच्छाओं को मारकर अपनी आवश्यकताओं को कम कर पर्यावरण की रक्षा करें ।
प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों दो भिन्न - भिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। एक समतामूलक है , दूसरी शोषणपरक। भारतीय संस्कृति प्राच्य की प्रतिनिधि है। यह संस्कृति सनातन गंगा प्रवाह है , जिसमें कूटस्थ नित्यता भी है , प्रवाह नित्यता भी । जिस प्रकार गंगा सतत् प्रवाहित हो रही है , परन्तु उसका प्रत्येक बिन्दु जल नवीन है , उसी प्रकार भारतीय संस्कृति भी सातत्य के साथ नवता का समावेश करते हुए चलती है। वेद कहता है ‘ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः ’ अर्थात् आदर्श विचारों को सब ओर से आने दो। जिस प्रकार एक वटवृक्ष से अनेक शाखायें - प्रशाखायें निकलकर उस वृक्ष को सहारा देती हैं , उसी प्रकार भारतीय ज्ञान परम्परा की अनेक चिन्तन धारायें भारतीय संस्कृति के अजस्र स्रोत के अबाध गति को बनाये रखने में अपना योगदान देती हैं। भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना आज इतने परिवर्तनों के बावजूद भी अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है। सम्बन्धों की संवेदना से मानवीय संवेदना के स्तर तक प्राच्य एवम् पाश्चात्य में आधारभूत...
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hum log apne swarth k karan parayawaran ko dushit karte jarehe hai.....