प्राच्य  एवं  पाश्चात्य  दोनों  दो  भिन्न - भिन्न  विचारधाराओं  के  प्रतिनिधि  हैं।  एक  समतामूलक है , दूसरी  शोषणपरक।  भारतीय  संस्कृति  प्राच्य  की  प्रतिनिधि  है।  यह  संस्कृति  सनातन  गंगा  प्रवाह  है , जिसमें  कूटस्थ  नित्यता  भी  है , प्रवाह  नित्यता  भी । जिस प्रकार गंगा सतत् प्रवाहित हो रही है , परन्तु उसका प्रत्येक बिन्दु जल नवीन है , उसी प्रकार भारतीय संस्कृति भी सातत्य के साथ नवता का समावेश करते हुए चलती है। वेद कहता है  ‘ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः ’  अर्थात् आदर्श विचारों को सब ओर से आने दो।  जिस  प्रकार  एक  वटवृक्ष  से  अनेक  शाखायें - प्रशाखायें  निकलकर  उस  वृक्ष  को  सहारा  देती  हैं , उसी  प्रकार  भारतीय  ज्ञान  परम्परा  की  अनेक  चिन्तन  धारायें  भारतीय  संस्कृति  के  अजस्र  स्रोत  के  अबाध  गति  को  बनाये  रखने  में  अपना  योगदान  देती  हैं। भारतीय  पारिवारिक  एवं  सामाजिक  संरचना  आज  इतने  परिवर्तनों  के  बावजूद  भी  अपनी  एक  विशिष्ट  पहचान  रखती  है।  सम्बन्धों  की  संवेदना  से  मानवीय  संवेदना  के  स्तर  तक  प्राच्य  एवम्    पाश्चात्य  में  आधारभूत...